जीवन की नई राह
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यूहन्ना 13:34,35 मैं तुम्हें एक नई आज्ञा देता हूँ कि एक दूसरे से प्रेम रखो; जैसा मैं ने तुम से प्रेम रखा है, वैसा ही तुम भी एक दूसरे से प्रेम रखो। 35यदि आपस में प्रेम रखोगे, तो इसी से सब जानेंगे कि तुम मेरे चेले हो।”
कल हमने स्वार्थ के बारे में बात की, क्योंकि अक्सर हम उन लोगों की कीमत पर खुद में अधिक रुचि रखते हैं, जिन्हें हमारी मदद की ज़रूरत है। तो इसका विकल्प क्या है? हमारा व्यवहार अलग तरीके का कैसे हो सकता है?
मुझे नहीं पता कि आपको कभी यह महसूस होता है, लेकिन कभी-कभी ऐसा लगता है कि बाइबिल में परमेश्वर के बारे में जो लिखा है, वह “धार्मिक बातें” जिसके बारे में मसीही लोग अक्सर बात करते हैं, दिन-प्रतिदिन की वास्तविकताओं से बहुत दूर हैं, खासकर आज की 21वीं सदी में। आज आप जिस जीवन को काम पर, घर पर, अपने परिवार में तनावों के बीच और अपने वित्तीय संघर्षों के बीच जी रहे हैं।
और फिर भी इससे ज्यादा सच और कुछ भी नहीं हो सकता है। विशेष रूप से जब जीवन जीने की बात आती है तो ऐसा जीवन जीना जो स्वयं के स्वार्थ से हठ कर एक ऐसा जीवन हो, जो दूसरों के जीवन को समृद्ध, सार्थक तरीके से छू सके। यीशु का यही अर्थ था जब उसने कहा:
यूहन्ना 13:34,35 मैं तुम्हें एक नई आज्ञा देता हूँ कि एक दूसरे से प्रेम रखो; जैसा मैं ने तुम से प्रेम रखा है, वैसा ही तुम भी एक दूसरे से प्रेम रखो। 35यदि आपस में प्रेम रखोगे, तो इसी से सब जानेंगे कि तुम मेरे चेले हो।”
यह काफी परिचित शब्द हैं, लेकिन इनकी अवहेलना करना आसान है। लेकिन ज़रा रुकें… और सोचें कि अगर हम इन शब्दों को जियें तो हमारा जीवन कैसा दिखेगा। यह कहा जाता है कि हमें सरलता से जीना चाहिए, उदारता से प्रेम करना चाहिए, दूसरों की चिंता करनी चाहिए और दयालुता से बोलना चाहिए।
क्या यीशु वास्तव में यहाँ यही बात नहीं कर रहा है? येशु के वचनों को अपने काम पर, अपने घर में, अपने पैसों के प्रयोग में, लागू करने से दूसरों के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
सरलता से जियें। उदारता से प्रेम करें। दूसरों की चिंता करें। दयालुता से भरे शब्द बोलें।
यह परमेश्वर का ताज़ा वचन है। आज …आपके लिए..।