सबसे पहला काम ।
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भजन संहिता 6:1-4 हे यहोवा, तू मुझे अपने क्रोध में न डांट, और न झुंझलाहट में मुझे ताड़ना दे। 2 हे यहोवा, मुझ पर अनुग्रह कर, क्योंकि मैं कुम्हला गया हूं; हे यहोवा, मुझे चंगा कर, क्योंकि मेरी हडि्डयों में बेचैनी है। 3 मेरा प्राण भी बहुत खेदित है। और तू, हे यहोवा, कब तक? लौट आ, हे यहोवा, और मेरे प्राण बचा; अपनी करुणा के निमित्त मेरा उद्धार कर।

किस बिंदु पर हमने फैसला किया कि हमारी भावनाओं या दुनिया की नीचे गिरती नैतिकता को सच्चाई या फिर परमेश्वर के वचन का अंतिम मध्यस्थ होना चाहिए। ऐसा कैसे हुआ?
यह सच है, है ना? आज कलीसिया के बड़े हिस्से ने परमेश्वर के सत्य के बड़े हिस्से को भुला दिया है – क्या सही है और क्या गलत है उसके इस वचन को सिर्फ इसलिए छोड़ दिया है क्योंकी उसके तरीके हमें सुविधाजनक नहीं लगते। उस के तरीके हमारी समकालीन सोच से मेल नहीं खाते। उसके तरीके अब हमें अच्छे नहीं लगते, अब वे सब व्यवहारिक नहीं हैं।
कल्पना कीजिए कि अगर यीशु ने वहाँ जंगल में इस सोच को अपनाया होता:
मत्ती 4:1-4 तब उस समय आत्मा यीशु को जंगल में ले गया ताकि इब्लीस से उस की परीक्षा हो।
2 वह चालीस दिन, और चालीस रात, निराहार रहा, अन्त में उसे भूख लगी।
3 तब परखने वाले ने पास आकर उस से कहा, यदि तू परमेश्वर का पुत्र है, तो कह दे, कि ये पत्थर रोटियां बन जाएं।
4 उस ने उत्तर दिया; कि लिखा है कि मनुष्य केवल रोटी ही से नहीं, परन्तु हर एक वचन से जो परमेश्वर के मुख से निकलता है जीवित रहेगा।
यदि उस क्षण में, यीशु की भूख, उसकी इच्छाएँ, उसकी भावनाएँ उस पर हावी हो गई होती, और वह शैतान के आगे झुक गया होता। अगर वह दुनिया के तौर-तरीकों पर चल पड़ा होता। अगर वह उस क्रूस पर कष्ट सहने और मरने के लिए कभी नहीं गया होता ताकि आपके और मेरे पाप क्षमा किए जा सकें। तो?
उसके भयानक परिणाम होते और आज भी, स्वयं के लिए परमेश्वर के वचन को अस्वीकार करने के परिणाम कम विनाशकारी नहीं हैं। परमेश्वर के बहुत से लोगों ने मसीह का अनुसरण करना छोड़ दिया है। इसके बजाय, वे स्वयं का अनुसरण कर रहे हैं। उनमें से एक मत बनें।
यह परमेश्वर का ताज़ा वचन है। आज … आपके लिए…