सुनने की कला
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नीति वचन 18:13 जो बिना बात सुने उत्तर देता है, वह मूढ़ ठहरता, और उसका अनादर होता है।
सबसे खराब चीजों में से एक जो हम कर सकते हैं, वह है किसी की बात बीच में काटना। या फिर, जो कहा जा रहा है उसे सुनने के उद्देश्य से चुप ना रहना, बल्कि सिर्फ इसलिए कि हम फिर से बोल सकें।
मैं आपके बारे में नहीं जानता, लेकिन कई लोग सुनने से अधिक बात करने वाले होते हैं। कभी कभी उनका काम भी कुछ इसी तरह का होता है। उन्हे विचारों को शब्दों में प्रकट करना बहुत आसान लगता है, और यह उनके लिए कोई मुश्किल काम नहीं होता है।
लेकिन इस आदत में सबसे बड़ा खतरा, हमेशा बात करने और कभी न सुनने की इच्छा है। उन्हें सीखने की जरूरत है, कि वास्तव में चुप रहना और वास्तव में लोगों को समझने के उद्देश्य से सुनना की वास्तव में उनका क्या मतलब है, और वे वास्तव में क्या कहना चाह रहे हैं। परमेश्वर के वचन में लिखा है।
नीतिवचन 18:13 जो बिना बात सुने उत्तर देता है, वह मूढ़ ठहरता, और उसका अनादर होता है।
कितनी अद्भुत ईश्वरीय सलाह है! हमने लोगो की बात बिना सुने उनके बारे में राय कायम करके खुद को बेवकूफ बनाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि सुनना निर्णय को जिज्ञासा में बदलने की कला है। ये बहुत सही है। मुझे लगता है कि कई लोगों की समस्या यह है कि वे इस बारे में कोई दिलचस्पी नहीं रखते कि दूसरा व्यक्ति क्या सोचता है।
लेकिन जब हम उनमें दिलचस्पी लेते हैं, जब हम वास्तव में उनके दिल की बात को सुनते हैं, तो यह अनुभव अत्यंत आकर्षक, ज्ञानवर्धक, समृद्ध करने वाला होता है। करना सिर्फ यह है तब तक चुप रहें जब तक सामने वाला अपनी बात समाप्त ना कर ले। तब आप उन्हें निर्णय के बजाय जिज्ञासा के दृष्टिकोण से बोलते हुए सुन सकेंगे। इसलिए …
जो बिना बात सुने उत्तर देता है,
वह मूढ़ ठहरता, और उसका अनादर
होता है।
यह परमेश्वर का ताज़ा वचन है। आज …आपके लिए…।